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कविता

बच्चा

ब्रजेंद्र त्रिपाठी


एक

मेरा सालभर का बेटा
चीर डालता है
किताबें
फाड़ डालता है -
अखबार
क्या उसे मालूम है -
व्यर्थ हैं ये किताबें
झूठे हैं ये अखबार


दो

नींद में
मुस्कराता है
बच्चा
एक मासूम तरल हँसी में
खिल उठते हैं
उसके होंठ
और हम डूब जाते हैं
एक गहन अर्चा भाव में
अपनी आत्मा के निकट


तीन

बच्चा
अब बड़ा होने लगा है
करने लगा है
सवाल पर सवाल
टाला नहीं जा सकता
हर सवाल को
न ही उत्तर दिया जा सकता है
हर सवाल का

कुछ सवाल
तो तुम्हें ही हल करने हैं
मेरे बच्चे !

 


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